हे सघन जल मेघ
बरसो उमड कर, कोश कर दो शेष
रिक्तियों के अन्त तक के गर्भ मे तुमको है जाना
यह धरा प्यासी युगों से, लौह इसके अंग मे अब बस गया है
एक मरुथल की सी छवि का कोई शर आकर ह्र्दय मे धंस गया है
पत्तियों पर शुष्क बून्दे निर्वसन सी नाचती है
ज्यों कपोलो पर धरा के अश्रु से झर के गिरे थे
उस महोदधि से ही तो तुम लाये हो पानी
जिस मदोन्मत कोश को पृथ्वी ने त्यागा
बांध दी सीमायें उसकी, उस कथित पौरुष की
जिसने जकड कर रखा था युग से, कल्प से
और अब भी कर चुकाया कर रहा वह महासागर
हे पयोधर तुम उसी जलनिधि के निकटतम दूत ही तो
क्या सन्देशे भेजता वह मानिनी प्रथ्वी को निवेदित?
दिनोदिन चढता ज्वार के आने के दिन तक
और फिर अस्ताचल को जैसे सूर्य हो जाते पराभूत
वैसे ही लाघव को, पूरा स्वयम् ही करता पयोनिधि
देह छू उस यौवना की लौट जाता गेह मे निज चिर वियोगी
हे वारिवाहन आये क्या तुम फिर वही आशाओं का दीपक जलाने
रश्मियों को रोक कर सूरज की क्या निपट एकान्त तुमको चाहिये?
बूंद के आघात से करते क्या निवेदन, इस निपट भोली धरित्री से दिवसनिशि?
थामकर बैठा है सागर देखता सा पंथ तेरा उस समय से
जब कि तेरे पितृ पूर्वज जन्म भी पाये न थे/
और अब भी सामने उसके वही दुर्दम्य सा सागर उच्छ्रंखल
बद्ध जिस के उर्मिलों मे चिर प्रतीक्षा बून्द के लघुतम कणों सी
हे जलद तुम बरस कर कब तक कहोगे ये सन्देशे मौन के
कब तक लिखेगा यह वियोगी भाव मन के?
और पढवाती रहेगी धरा उनको अपने वृक्ष गुल्मों और त्रण से//
बरसो उमड कर, कोश कर दो शेष
रिक्तियों के अन्त तक के गर्भ मे तुमको है जाना
यह धरा प्यासी युगों से, लौह इसके अंग मे अब बस गया है
एक मरुथल की सी छवि का कोई शर आकर ह्र्दय मे धंस गया है
पत्तियों पर शुष्क बून्दे निर्वसन सी नाचती है
ज्यों कपोलो पर धरा के अश्रु से झर के गिरे थे
उस महोदधि से ही तो तुम लाये हो पानी
जिस मदोन्मत कोश को पृथ्वी ने त्यागा
बांध दी सीमायें उसकी, उस कथित पौरुष की
जिसने जकड कर रखा था युग से, कल्प से
और अब भी कर चुकाया कर रहा वह महासागर
हे पयोधर तुम उसी जलनिधि के निकटतम दूत ही तो
क्या सन्देशे भेजता वह मानिनी प्रथ्वी को निवेदित?
दिनोदिन चढता ज्वार के आने के दिन तक
और फिर अस्ताचल को जैसे सूर्य हो जाते पराभूत
वैसे ही लाघव को, पूरा स्वयम् ही करता पयोनिधि
देह छू उस यौवना की लौट जाता गेह मे निज चिर वियोगी
हे वारिवाहन आये क्या तुम फिर वही आशाओं का दीपक जलाने
रश्मियों को रोक कर सूरज की क्या निपट एकान्त तुमको चाहिये?
बूंद के आघात से करते क्या निवेदन, इस निपट भोली धरित्री से दिवसनिशि?
थामकर बैठा है सागर देखता सा पंथ तेरा उस समय से
जब कि तेरे पितृ पूर्वज जन्म भी पाये न थे/
और अब भी सामने उसके वही दुर्दम्य सा सागर उच्छ्रंखल
बद्ध जिस के उर्मिलों मे चिर प्रतीक्षा बून्द के लघुतम कणों सी
हे जलद तुम बरस कर कब तक कहोगे ये सन्देशे मौन के
कब तक लिखेगा यह वियोगी भाव मन के?
और पढवाती रहेगी धरा उनको अपने वृक्ष गुल्मों और त्रण से//
8 Comments:
बहुत खूब भास्कर बाबू...
हिन्दी पर आपकी पकड हमे अभिभूत किये देती है..जबरदस्त लिखते हैं..
आपके विचार और भाषा दोनो अत्यन्त परिमार्जित हैं , भास्कर । आपका पहला पोस्ट जितना छोटा है उतना ही सारगर्भित ।
बधाई !!
बहुत ही अच्छी कविता है। वैसे 'संवदिया' का क्या अर्थ है?
आपका स्वागत हिंदी ब्लागजगत में.
बहुत अच्छा....
....ऒर अधिक धारदार लिखने की मह ति शुभकामनाएँ.
आपका,
संजय विद्रोही
bhas guru,
kuch winrock par likho,
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Hi
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