रविवार, जुलाई 24

पृथ्वी वैसी ही घूमती रहती है सूरज के चारों ओर निर्विकार तापस सी
मारीच सुखा डालता है उसके मेह से भरे केश,
और वो बांधती वल्कली जूडा सघन वनराशि का
देखते ही देखते चौरासी के परिभ्रमण से घट जाती एक और योनि
मगर सचमुच कहीं नहीं घटता कुछ, रन्च मात्र बदलाव भी नहीं
वैसी ही निजन आकाश के सिन्धु में डूबती जाती, गुजरती ज़िन्दगी
कथानक और बढ्ते जाते निरन्तर निर्ज़्हरों के अश्रु बिन्दु सा,
कुछ महीन रेशम सा गड जाता आकर के मेरी आंख मे
और जब मै जागता तो पाता, नही ये स्वप्न ही तो था
दिगन्तर तक सुलगती रह्ती रश्मियां उस सुर्य की
स्वयं की दावाग्नि से पीडित ह्रदय उसका और भी रक्तिम लगा है
और धरती से घूमते ही घूमते पाता मै अचानक
भर गया कौतुक उन बादलों के मध्य रंगराशि में
विस्मयाच्छादित कर गये वे रेशमी बादल भले ही स्वप्न से निरथक निफल थे
लिख गये गुन्जन कोकिला की स्वर ग्रन्थियों पर
डाल कर जादू सा कर दिया रेखाखचित इस विश्व को,बस देखते ही देखते
और अब भी गुन्जती रहती मेरी श्रवणेन्द्रियांउस व्यर्थ की निरत पदचाप से,
जो छोड आया मै अचानक उन बाद्लों के मोह में
एक्-एक कण नभि कस्तूरी का खोजता मै उछलकरा
और पूरा हो जाता एक चक्कर और प्रथ्वी का अन्शुमन की परिधि मे
शिशु की मनिन्द उझककर देखता मै बाज़ीगरी का खेल
मगर अब क्या? सूरज छिपने वाला है खेल खत्म हुआ/

1 Comments:

Blogger Nitin Bagla said...

बधाई भास्कर बाबू...अपना चिट्ठा शुरु करने के लिये..
कुछ ऐसा भी लिखो जो हम जैसे तुच्छ प्राणियों को भी समझ में आ जाऐ.. ;)

3:05 am  

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