धूप मेरी आंखों मे उतर आयी है,
और मै खडा हो गया जाकर उस अकेली बह रही धारा किनारे
शिरो बिन्दु तक सब आप्लावित् कर रहा मेरा ह्रदय उस शिशु सद्रश
सम्मुख विजय की द्रष्टियां नूतन ह्र्दय नव स्रष्टियां
लौकिक नही कुछ भी यहां इस सिन्धु में
एक दीपक जला करता है निरंतर उस मनो आलिन्द में
वो कूकती रहती है कोकिल स्वरों की लहरियों के साथ
और मेरे सामने वृक्ष लगते सूखने, पर्ण चरमर चूर होते
उन मदोन्मत्त गजसमों की देह का अभिमान टूटा जा रहा एक सूती चीर सा
बहा करती है अब भी सरिता उन किनारों पे
कि जिनके सामने सदा बहना उसकी नियति है
और काटा कर रही उन कृष्णवर्णी पाषाण को कि
जिनके अन्त तक के अंग में केवल औद्धत्य है
भव्य मीनारें गगनचुम्बी शिखर अठखेलियां करते हुए से
वे बडे नत शैल ज़्यों डराते हों गगन को छातियां चौडी किये से
गान ऐसा गूंजता रहता उस सघन वन प्रान्त में
कि जिसके शब्द की पदचाप भी छू पाना असम्भव
और फिर भी नाद कर देता कर्ण कुहरों को व्याकुल
पुनर्पुन: शब्द क चमत्कार
वे सर्पिल सी निशब्द रेखाओं सी नदियां
जिनमें प्रवेशोपरान्त फिर लौटने की नही क्षमता न ही आवेग
वे दुस्साहसी मानव यहां आके बस गये है
चीर कर धरती का सीना खीन्च ही लेते है रोटी
उस कठोर श्रमवान दल के स्वेद बिन्दु गिरा करते हैं अब भी यहीं पे
कहीं अचानक मिल जायें तो कितना सुलभ हो जाये जीना
ज़िन्दगी की राह पे चढना उतरना फिसल आना
सामने कुछ भी नही अब सघन वन अन्धियार है
चिडिया उड गयी हैं जा बसी अपने घरों मे
मै क्यूं भटक रहा यूं ही चतुर्दिक्
यूं ही निरन्कुश निरर्गल विक्षुब्ध सा
कहां पर है आग जो बुझ नही पाती कभी भी
कहां से उस नाट्य पर परदा गिराऊं
कथायें बहुत्, घटना बहुत है और मेरे सामने दर्शक नही कोई खडा
सब चले अपने निलय को शयन की ये मध्य बेला
और मै खडा हो गया जाकर उस अकेली बह रही धारा किनारे
शिरो बिन्दु तक सब आप्लावित् कर रहा मेरा ह्रदय उस शिशु सद्रश
सम्मुख विजय की द्रष्टियां नूतन ह्र्दय नव स्रष्टियां
लौकिक नही कुछ भी यहां इस सिन्धु में
एक दीपक जला करता है निरंतर उस मनो आलिन्द में
वो कूकती रहती है कोकिल स्वरों की लहरियों के साथ
और मेरे सामने वृक्ष लगते सूखने, पर्ण चरमर चूर होते
उन मदोन्मत्त गजसमों की देह का अभिमान टूटा जा रहा एक सूती चीर सा
बहा करती है अब भी सरिता उन किनारों पे
कि जिनके सामने सदा बहना उसकी नियति है
और काटा कर रही उन कृष्णवर्णी पाषाण को कि
जिनके अन्त तक के अंग में केवल औद्धत्य है
भव्य मीनारें गगनचुम्बी शिखर अठखेलियां करते हुए से
वे बडे नत शैल ज़्यों डराते हों गगन को छातियां चौडी किये से
गान ऐसा गूंजता रहता उस सघन वन प्रान्त में
कि जिसके शब्द की पदचाप भी छू पाना असम्भव
और फिर भी नाद कर देता कर्ण कुहरों को व्याकुल
पुनर्पुन: शब्द क चमत्कार
वे सर्पिल सी निशब्द रेखाओं सी नदियां
जिनमें प्रवेशोपरान्त फिर लौटने की नही क्षमता न ही आवेग
वे दुस्साहसी मानव यहां आके बस गये है
चीर कर धरती का सीना खीन्च ही लेते है रोटी
उस कठोर श्रमवान दल के स्वेद बिन्दु गिरा करते हैं अब भी यहीं पे
कहीं अचानक मिल जायें तो कितना सुलभ हो जाये जीना
ज़िन्दगी की राह पे चढना उतरना फिसल आना
सामने कुछ भी नही अब सघन वन अन्धियार है
चिडिया उड गयी हैं जा बसी अपने घरों मे
मै क्यूं भटक रहा यूं ही चतुर्दिक्
यूं ही निरन्कुश निरर्गल विक्षुब्ध सा
कहां पर है आग जो बुझ नही पाती कभी भी
कहां से उस नाट्य पर परदा गिराऊं
कथायें बहुत्, घटना बहुत है और मेरे सामने दर्शक नही कोई खडा
सब चले अपने निलय को शयन की ये मध्य बेला