रविवार, जुलाई 24

धूप मेरी आंखों मे उतर आयी है,
और मै खडा हो गया जाकर उस अकेली बह रही धारा किनारे
शिरो बिन्दु तक सब आप्लावित् कर रहा मेरा ह्रदय उस शिशु सद्रश
सम्मुख विजय की द्रष्टियां नूतन ह्र्दय नव स्रष्टियां
लौकिक नही कुछ भी यहां इस सिन्धु में
एक दीपक जला करता है निरंतर उस मनो आलिन्द में
वो कूकती रहती है कोकिल स्वरों की लहरियों के साथ
और मेरे सामने वृक्ष लगते सूखने, पर्ण चरमर चूर होते
उन मदोन्मत्त गजसमों की देह का अभिमान टूटा जा रहा एक सूती चीर सा
बहा करती है अब भी सरिता उन किनारों पे
कि जिनके सामने सदा बहना उसकी नियति है
और काटा कर रही उन कृष्णवर्णी पाषाण को कि
जिनके अन्त तक के अंग में केवल औद्धत्य है
भव्य मीनारें गगनचुम्बी शिखर अठखेलियां करते हुए से
वे बडे नत शैल ज़्यों डराते हों गगन को छातियां चौडी किये से
गान ऐसा गूंजता रहता उस सघन वन प्रान्त में
कि जिसके शब्द की पदचाप भी छू पाना असम्भव
और फिर भी नाद कर देता कर्ण कुहरों को व्याकुल
पुनर्पुन: शब्द क चमत्कार
वे सर्पिल सी निशब्द रेखाओं सी नदियां
जिनमें प्रवेशोपरान्त फिर लौटने की नही क्षमता न ही आवेग
वे दुस्साहसी मानव यहां आके बस गये है
चीर कर धरती का सीना खीन्च ही लेते है रोटी
उस कठोर श्रमवान दल के स्वेद बिन्दु गिरा करते हैं अब भी यहीं पे
कहीं अचानक मिल जायें तो कितना सुलभ हो जाये जीना
ज़िन्दगी की राह पे चढना उतरना फिसल आना
सामने कुछ भी नही अब सघन वन अन्धियार है
चिडिया उड गयी हैं जा बसी अपने घरों मे
मै क्यूं भटक रहा यूं ही चतुर्दिक्
यूं ही निरन्कुश निरर्गल विक्षुब्ध सा
कहां पर है आग जो बुझ नही पाती कभी भी
कहां से उस नाट्य पर परदा गिराऊं
कथायें बहुत्, घटना बहुत है और मेरे सामने दर्शक नही कोई खडा
सब चले अपने निलय को शयन की ये मध्य बेला
पृथ्वी वैसी ही घूमती रहती है सूरज के चारों ओर निर्विकार तापस सी
मारीच सुखा डालता है उसके मेह से भरे केश,
और वो बांधती वल्कली जूडा सघन वनराशि का
देखते ही देखते चौरासी के परिभ्रमण से घट जाती एक और योनि
मगर सचमुच कहीं नहीं घटता कुछ, रन्च मात्र बदलाव भी नहीं
वैसी ही निजन आकाश के सिन्धु में डूबती जाती, गुजरती ज़िन्दगी
कथानक और बढ्ते जाते निरन्तर निर्ज़्हरों के अश्रु बिन्दु सा,
कुछ महीन रेशम सा गड जाता आकर के मेरी आंख मे
और जब मै जागता तो पाता, नही ये स्वप्न ही तो था
दिगन्तर तक सुलगती रह्ती रश्मियां उस सुर्य की
स्वयं की दावाग्नि से पीडित ह्रदय उसका और भी रक्तिम लगा है
और धरती से घूमते ही घूमते पाता मै अचानक
भर गया कौतुक उन बादलों के मध्य रंगराशि में
विस्मयाच्छादित कर गये वे रेशमी बादल भले ही स्वप्न से निरथक निफल थे
लिख गये गुन्जन कोकिला की स्वर ग्रन्थियों पर
डाल कर जादू सा कर दिया रेखाखचित इस विश्व को,बस देखते ही देखते
और अब भी गुन्जती रहती मेरी श्रवणेन्द्रियांउस व्यर्थ की निरत पदचाप से,
जो छोड आया मै अचानक उन बाद्लों के मोह में
एक्-एक कण नभि कस्तूरी का खोजता मै उछलकरा
और पूरा हो जाता एक चक्कर और प्रथ्वी का अन्शुमन की परिधि मे
शिशु की मनिन्द उझककर देखता मै बाज़ीगरी का खेल
मगर अब क्या? सूरज छिपने वाला है खेल खत्म हुआ/

शनिवार, जुलाई 23

उन्मेष

आज प्रथम दिवस है हिन्दी परिपत्र लिखने का.आलस्यं हि मनुष्याणाम शरीरस्थो महारिपु: अतएव आज द्रढता पूर्वक बैठ ही गया/ आशा ऐसी है कि निरन्तरता रहेगी,शेष भविष्य के गर्भ मे है/

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आइने मे दिखता है सब कुछ उल्टा
दायें से बायां और बायें से दायां हो जाता हे सब कुछ
देखते रह्ते हैं ता-उम्र खुद को और दूसरों को आइने में
और हो जाते हैं अभ्यस्त खुद को वैसा ही समझने के, सदा के लिये/